शायरों की ग़ज़लें सुंदर होती है… अधिकतर… नायाब ख्यालात भी.. पर कुछ परेशां हो जाता हूँ” फिर कोई दिल या जिगर यहाँ या वहाँ गिर जाता हैं””जनाज़े” तो हर दूसरी तीसरी ग़ज़ल मे “उठ ही जाते हैं”मरने का जश्न क्यों मनाया जाता है गज़लों नज़्मों मे ? यह नही पूछता मैंपर  शायर ज़िंदगी का क्यों नही मनाता जश्न यह पूछता हूँ मैं ? “नश्तर, छुरी, तलवार” पर ही क्यों करते हैशायर अपनी नज़रे इनायत? क्यों नही अमन चैन के ख्वाब देखते शायर? क्यों नही ज्यादा सम्मान देता लेता है वहअपनी प्रेमिका को या प्रेमिका से? या क्यों नही लिखता अपनी ही पत्नी के सम्मान मे चन्द प्नक्तियाँ? क्यों पूरे शहर के शराबखानों का ठेकाशायरों के पास ही होता है? क्यों उसकी निगाहों को “कफन ही कफन” दिखते हैसब तरफ और क्यों करता है वो किसी “काफिर ” का ज़िक्रसत्रह बार चार गज़लों मे? क्यों हर तीसरी गज़ल रुक जाती है किसी “कब्रिस्तान “की चारदीवारी पर ? और क्यों किसी की भी या अपनी ही ” मैय्यत ” “जनाज़ा “उठा देता है शायर किसी भी बहाने? यह आये हैं सवाल मुझ नाचीज़ के ज़ेहन मेंहो सके तो आप भी फर्माएं गौरइन मुद्दों पर क्योंकि मनाना हो जश्न तो मनाएं ज़िंदगी का,हसीं रहेगा

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